मां बेटे की चुदाई – एक मनोचिकित्सक की ज़ुबानी-5

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जब असलम अट्ठारह साल का हुआ तो नसरीन के शौहर बशीर की दिल के दौरे से इंतकाल हो गया। नसरीन की कहानी जारी थी।

नसरीन बता रही थी, “बशीर के मौत ने मुझे और असलम को तोड़ कर रख दिया। वक़्त के साथ असलम ने बड़ी हिम्मत से काम लिया और और अपने आप को संभाल लिया। मगर मैं अपने को नहीं संभाल सकी।”

“मुझे बशीर के साथ गुजारा वक़्त याद आता – बशीर की चुदाई याद आती। वो रातें याद आती जब बशीर और मैं वो चुदाई कि फ़िल्में देखते हुए चुदाई करते थे। वो वक़्त याद आते ही मेरी चूत पानी छोड़ देती और मेरा चुदाई का मन होने लगता। लेकिन अब हालात ऐसे बन चुके थे कि लंड तो था नहीं, उंगली भी चूत में लेने का मन नहीं करता था।”

“बशीर के साथ हुई अनगिनत मस्त चुदाईयों की यादें मुझे और उदास कर देती थी। बशीर का मेरी चूत चूसना, बशीर का लंड मेरे मुंह में – ये बातें याद कर-कर के मेरी चूत में बरसात होने लगती। एक दिन तो मुझे अपनी पहली और आख़री गांड चुदाई याद आ गयी। मैं सोचने लगी क्यों मैंने बशीर से दुबारा गांड नहीं चुदवाई। मुझे दर्द हुआ था तो क्या हुआ, बशीर को तो मजा आया ही था।”

“असलम अब कालेज जाना शुरू हो चुका था। असलम खुले शरीर का लड़का निकल रहा था। लाल रंग की बशीर की बुलेट मोटर साइकिल अब असलम चलाने लग गया था। असलम जब बुलेट पर बैठता तो मुझे उसमें बशीर के झलक दिखाई देती थी। सदर के मेन बाजार में जमी हुई हमारी दुकान जमाल के भरोसे पर थी और अच्छी चल रही थी।”

“25-26 साल का जमाल बशीर का बहुत कि भरोसेमंद नौकर था। बशीर कई बार काम से दो-दो तीन-तीन दिन के लिए आगरा से बाहर चला जाता था, तब दुकान जमाल ही संभालता था। बशीर के ना रहने पर भी हमारी दुकान जमाल ने अच्छे से संभाली हुई थी। जमाल शादी-शुदा था और एक बेटी का पिता भी। जमाल की शादी में मैं भी गयी थी। जमाल की बीवी सायरा बड़ी ही अच्छी लड़की थी।”

“ऐसे ही एक साल और गुजर गया। असलम ने अपने आप को पूरी तरह से संभाल लिया था, मगर मेरी उदासी दूर नहीं हो रही थी। बशीर के साथ गुजरा वक़्त और उसके साथ हुई चुदाईयों के यादें मुझे बेचैन कर देती थी।”

“एक दिन जमाल आया और उसने असलम से कहा, “असलम भैया, भाभी कब तक ऐसे ही उदास रहेगी। भाभी को भी अपने को संभालना चाहिए।”

असलम भी क्या जवाब देता। वो कुछ सोचने लगा। फिर जमाल ही बोला, “भैया मैं एक बात बोलूं?”

असलम जमाल की तरफ देखने लगा। जमाल ने कहा, “असलम भैया, भाभी क्यों नहीं दूकान पर आना शुरू करती। अब तो ज़माना भी बदल चुका है। बशीर भाई के बाद अब भाभी ही तो दुकान की मालिक है। मालिक दुकान पर बैठेगा तो अच्छा रहेगा। भाभी का भी मन बहल जाएगा। जब भी मुझे छोटे-मोटे काम के लिए कहीं जाना होता है तो मुझे दुकान बंद कर के जाना पड़ता है। भाभी रहेगी तो दुकान बंद नहीं करनी पड़ेगी।”

जमाल कह रहा था, “भाभी दस ग्यारह बजे तक दुकान पर आ जाया करें। दोपहर एक से तीन बजे तक दो घंटे के लिए बाजार बंद सा ही रहता है और दूकान में भी कारोबार ना के बराबर होता है। मैं ऊपर का कमरा ठीक करवा दूंगा। एक बजे से तीन बजे तक दो घंटे भाभी ऊपर आराम करे। चार बजे आप कालेज से आ ही जाते हो, तब भाभी घर लौट जाये।”

“असलम को भी जमाल की बात जची। फिर असलम ने मुझ से बात की।”

“मुझे असलम की ये मेरे दुकान पर जाने की बात बड़ी अजीब से लगी।”

मैंने असंजस से कहा, “असलम मैं तो कभी घर से ही बाहर नहीं गई, दुकान पर मैं कैसे बैठूंगी – क्या करूंगी।”

असलम बोला, “अम्मी हालत भी तो बदले हैं। आप कब तक ऐसे ही उदास रहोगी। जो होना था, वो तो हो चुका। अब आपको अपने को संभालना चाहिए। मुझसे भी आपका ऐसे चुप-चाप रहना देखा नहीं जाता। दूकान पर जाने से रोज नए-नए लोग दिखाई देंगे, उनसे बात-चीत होगी तो आपका मन भी बहल जायेगा।”

फिर असलम थोड़ा रुक कर बोला, “जमाल कह रहा था वो ऊपर का कमरा ठीक करवा देगा। बेड लगा ही हुआ है – एक छोटा बाथरूम भी ऊपर बना हुआ है। मैं जमाल से बोल कर एक छोटा TV और कैसेट प्लेयर भी लगवा दूंगा। दुकान फ़िल्मी कैसटों से भरी पड़ी है। जब ऊपर जाओ तो मनमर्जी की फिल्म लगा लो”।

“असलम के फ़िल्मी कैसटों के बारे में कहते ही मेरी आखों के आगे चुदाई की वो फ़िल्में घूम गयी, जो मैं और बशीर इकट्ठे देखा करते थे और चुदाई किया करते थे। मगर फिर ध्यान आया जमाल के होते ऐसी फिल्में कैसे देखूंगी? जल्दी से मैंने ये ख्याल अपने दिमाग से झटक दिया।”

“असलम हर दो दिन बाद यही दुकान पर जाने वाली बात छेड़ देता। धीरे-धीरे मुझे भी लगने लगा असलम ठीक ही कह रहा है। कब तक ऐसे ही घर पर मायूस बैठी रहूंगी। मुझे दुखी देख कर असलम भी दुखी हो जाता है।”

“मैंने दूकान पर जाना शुरू कर दिया। असलम कालेज जाते जाते दस साढ़े दस बजे मुझे दुकान पर छोड़ देता। मैं जमाल को काम करते हुए देखती रहती। कोई लड़की या औरत आती तो दो बातें उनके साथ भी हो जाती थी।”

“दोपहर एक बजे से तीन बजे ऊपर कमरे में चली जाती। साथ या तो कोइ मैगज़ीन ले जाती या कोइ नयी फिल्म की कैसेट ले जाती। शाम चार बजे असलम कॉलेज से सीधा दुकान पर आ जाता, तो मैं घर आ जाती और घर के कामों में लग जाती।”

“सब ठीक था। फिर मैंने दुकान की किताबों के बारे में जानना शुरू किया। वही थे जासूसी नॉवल, फ़िल्मी मैगज़ीन, कुछ धार्मिक किताबें, जंत्रिया औरतों के घरेलू मैगज़ीन और फिल्मों की कैसेट।”

“एक दिन जमाल कहीं गया हुआ था, मैं ऐसे ही कोने वाली मैगज़ीन की अलमारी के सामने खड़ी थी, तो मेरी नजर एक छोटी सी किताब पर पड़ी। ऊपर लिखा था ‘कच्ची जवानी के चस्के’। मुझे नाम कुछ अजीब सा लगा। मैंने एक मैगज़ीन उठाई तो नीचे की दूसरी मैगज़ीन का नाम था ‘कमसिन हसीना की हवस”।

“मुझे बड़े अजीब से नाम लगे। और देखा तो वो अलमारी पूरी ऐसे ही मैगज़ीन, किताबों से भरी पड़ी थी। ‘एक हसीना सुनसान हवेली में’, ‘पहली रात के ताबड़-तोड़ किस्से’, ‘जीजा की प्यारी साली कुंवारी।”

“मैंने एक मैगज़ीन उठाई और अपनी कुर्सी पर आ कर पढ़ने लगी। मैगज़ीन में बस चूत लंड और चुदाई ही नहीं लिखा था, बाकी सब था। फिर मुझे ध्यान आया कि कुछ कच्ची उम्र के लड़के-लड़कियां जमाल को बड़े धीरे से कुछ बोलते थे और जमाल उनको अलमारी में से छोटी सी मैगज़ीन निकाल कर पकड़ा देता है। बहुत से लड़के-लड़कियां ये किताबें ले जाते हैं।”

“खैर इस बात की तरफ मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, जमाना तो बदल ही रहा था।”

“मैंने अलमारी में से एक मैगज़ीन निकाली और बैठ कर कहानियां पढ़ने लगी। मैगजीन में कई छोटी-छोटी कामुक कहानियां थी। कहानियां पढ़ते-पढ़ते मेरी चूत गीली होने लग गयी। मन तो कर रहा था चूत में उंगली करूं, मगर कोइ भी कभी भी आ सकता था। तभी जमाल आ गया और मैंने वो मैगज़ीन मेज की दराज में बाकी कागज़ों के नीचे डाल दी।”

“शाम चार बजे असलम दूकान पर आया तो मैं रिक्शा लेकर घर वापस आ गयी। घर जाते हुए मैं उस मैगज़ीन के बारे में भूल सी गयी। अगले दिन दुकान पर गयी तो उस मैगज़ीन का ध्यान आया। मेज की दराज खोली तो देखा वो मैगज़ीन दराज में नहीं थी।”

“मैगज़ीन दराज में ना देख कर मेरी हालत खराब हो गयी।”

“मैं सोचने लगी क्या असलम के हाथ वो मैगज़ीन पड़ गयी थी, या जमाल ने वो वहां से उठाई थी।”

“उधर एक बार ये कामुक कहानियां पढ़ने के बाद मुझे अब इन कामुक कहानियों को पढ़ने का चस्का लग गया था। मैं अक्सर मौक़ा पा कर जमाल के नजर बचा कर अलमारी में से वो मैगज़ीन निकालती और छुप-छुप कर पढ़ने लग जाती।”

“मुझे अच्छी तरह मालूम था कि जमाल भी मुझे ये कहानियां पढ़ते देख चुका था – मगर हम दोनों इस बारे में अनजान होने का नाटक कर रहे थे।”

“एक दिन मेरे हाथ जो मैगज़ीन लगी, उसमें एक कहानी थी ‘देवर ने भाभी पटाई, रात के अंधेरे में बनी लुगाई’। कहानी कुछ ज्यादा की कामुक थी। जवान देवर और हमउम्र भाभी की चुदाई की कहानी थी। कहानी पढ़ते-पढ़ते मेरी चूत ने खूब पानी छोड़ा। मेरा मन चूत में कुछ डालने का होने लगा।”

“मगर मैं क्या करती। दुकान में बैठे-बैठे तो चूत में कुछ डाल कर मजा लेना नामुमकिन था। मन मार कर मैंने वो मैगज़ीन दराज में ही कागजों के नीचे रख ली। ये सोच कर कि अगले दिन दुबारा इसकी कहानियां पढूंगी और सोचूंगी कि चूत का पानी छुड़ाने के लिए क्या किया जा सकता है।”

“अगले दिन मैं फिर वही मैगजीन पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते जल्दी ही मेरी चूत ने पानी छोड़ना शुरू कर दिया। मेरा मन किया मैगजीन ऊपर कमरे में ले जाऊं और पढ़ते-पढ़ते चूत में उंगली करके ही मजा ले लूं। घड़ी पर नजर गयी तो अभी साढ़े ग्यारह ही बजे थी। मेरा ऊपर कमरे में जाने का टाइम तो एक बजे का था।”

“मैंने फिर उसी मैगजीन की कहानियां पढ़नी शुरू कर दी। कहानियां इतनी कामुक थी, कि मुझसे रहा नहीं जा रहा था। मेरी चूत कुलबुला रही थी। आखिर दोपहर बारह बजे मैं उठ गयी और मैगजीन चुन्नी के नीचे छुपा कर जमाल से बोली, “जमाल, मेरा लेटने का मन कर रहा है, मैं ऊपर जाती हूं।”

“जमाल ने खाली हां में सर हिला दिया और अपने काम में लग गया।”

“ऊपर के कमरे में जा कर मैंने कहानी पढ़नी शुरू की। कहानी इतनी कामुक थी की मेरा मन फिर से अपनी चूत में कुछ डालने का होने लगा। बशीर के मोटा लंड ले चुकी मेरी चूत में उंगली का तो कोइ असर ही नहीं होता था। चूत का दाना रगड़ कर पानी तो छूट जाता, मगर वो मजा नहीं आता था जो चूत में मोटा सा लम्बा सा लंड जाने से आता है।”

“मैंने इधर-उधर देखा कि चूत में डालने के लिए लंड जैसी कोइ चीज़ मिल जाए और उसी मैं अपनी चूत में डाल कर चूत का पानी छुड़ा लूं।”

“तभी मुझे एक मेज पर एक मोटा सा प्लास्टिक का गोल कवर दिखाई दिया। ये एक गिफ्ट पैकेट था और इसके अंदर गिफ्ट देने के लिए दो पेनों का एक सेट था।”

“मुझे चूत में लेने के लिए बिल्कुल सही लगा। कवर डेढ़ इंच, दो इंच मोटा था और छह इंच के करीब लम्बा था। कवर का आगे का हिस्सा गोल था, बिल्कुल लंड की तरह।”

“ये पैन का कवर बशीर के लंड जैसा तो नहीं था, मगर कम से कम उंगली से तो अच्छा ही था।”

“मैंने कहानी पढ़नी शुरू की, और थूक लगा कर पैन का कवर चूत में डाल लिया और उसे आगे-पीछे करना शुरू कर दिया।”

“कामुक कहानी और मेरी चूत की लंड की प्यास। पैन के कवर के झटके मेरी चूत ज्यादा नहीं झेल पायी और दस मिनट में ही चूत पानी छोड़ गयी और मुझे मजा आ गया। बड़े अरसे के बाद अच्छा सा मजा आया था।”

“मुझे लगा ये पैन का कवर चूत में डाल कर पानी छुड़ाना भी ठीक ही था, मजा तो आया ही था। जब चूत के मजे का जूनून सर से उतरा तो मैं मैगज़ीन अपनी चुन्नी में छुपा कर नीचे उतरी। जमाल ने एक नज़र मेरी तरफ देखा और ग्राहकों के साथ व्यस्त हो गया। मौक़ा पा कर मैंने वो मैगज़ीन अलमारी में रख दी।”

“दुकान में बैठे-बैठे मैं जमाल के सामने तो ये कामुक कहानियां पढ़ने लग ही गयी थी। मैं कामुक कहानी पढ़ती रहती और बीच-बीच में चूत को खुजला भी लेती। जमाल अनजान बना अपना काम करता रहता और मैं चुपके से कामुक कहानियां पढ़ती रहती।”

“कहानियां पढ़ते-पढ़ते जिस दिन चूत में कुछ डालने का मन होता, उस दिन मैं एक बजने का भी इंतजार नहीं करती थी, और जमाल को बोल देती, “जमाल मेरा आराम करने का मन हो रहा है।” जमाल भी सर हिला देता और मैं मैगजीन साथ ही ऊपर ले जाती और पेन के कवर को चूत में डाल कर मजा ले लेती।”

“ऐसा तो हो ही नहीं सकता था कि जमाल को मालूम ना हो कि वक़्त बेवक़्त मैं मैगजीन अपने साथ ऊपर लेकर जाती हूं। जान कर भी अनजान बने जमाल ने कभी मुझे ये एहसास नहीं होने दिया कि वो ये जानता था। शायद वो बशीर के ना होने के कारण मेरी मजबूरी समझता था। जब मैं ऊपर कमरे में होती थी, तो जमाल कभी ऊपर नहीं आता था।”

“एक दिन ऐसी ही मैगज़ीन ‘कच्ची कमसिन जवानी के किस्से’ मेरे हाथ लगी। इस मैगज़ीन में भी बहुत ही कामुक कहनियां थी। पढ़ते-पढ़ते मेरी चूत उस दिन की तरह गीली हो गयी और उसी वक़्त पेन का कवर चूत में लेने का मन करने लगा।”

“घड़ी की तरफ देखा तो अभी बारह ही बजे थे। मेरा ऊपर कमरे में जाने का टाइम अभी नहीं हुआ था। मगर मेरी चूत की हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि मेरा उसी वक़्त चूत में कुछ डालने का मन हो रहा था। मैंने मैगज़ीन उठाई और एक बजे जमाल से बोली, “जमाल मैं जरा ऊपर आराम कर लूं।”

जमाल ने एक बार घड़ी की तरफ देखा और कहा। “ठीक है भाभी।” और साथ ही अख़बार में लिपटी मैगज़ीन जैसी कुछ चीज़ मेरे हाथ में दे दी और बोला, “इनको भी देख लेना भाभी।”

“इनको भी देख लेना भाभी?”

मैं सोचने लगी “इनको भी देख लेना भाभी”, इसका क्या मतलब हो सकता है? तो क्या ये भी वैसी ही मैगज़ीन थी जैसी मैं अलमारी में रखी थी और जिन्हें मैं पढ़ा करती थी?”

“ऊपर जाकर मैंने अखबार में से मैगज़ीन निकाली तो कोइ विदेशी मैगज़ीन थी। चुदाई की रंगीन फोटोएं थी। लंड चूत में गया हुआ, गांड में गया हुआ मुंह में लिया हुआ। लंड में से निकला ढेर सारा सफ़ेद-सफ़ेद पानी चूचियों पर फैला हुआ। मैंने सोचा जमाल ने मुझे ये मैगज़ीन क्यों दी।”

“मैगज़ीन के साथ एक छोटी सी तीस पैंतीस पन्नों की किताब थी। मस्त राम मस्ताना के लिखी हुई।”

“खोल कर पढ़ा तो हैरान हो गयी। पहली ही कहानी का शीर्षक था ‘सेठानी की रगड़ाई वाली चुदाई’। अगली कहानी थी ‘जीजा ने तोड़ी साली की सील’। उससे अगली कहानी थी ‘आओ गांड-गांड खेलें’।”

“मेरा माथा घूम गया। अब तक मैं जो कहानियां पढ़ती थी वो तो इन कहानियों के सामने कुछ भी नहीं थीं।”

“मैंने एक के बाद एक कहानी पढ़नी शुरू कर दी। पढ़ते-पढ़ते मेरी चूत इतनी गरम हो गयी कि मुझे पेन का कवर चूत में लेने की जरूरत महसूस होने लगी। मैंने पेन का कवर उठाया और थूक लगा कर अपनी चूत में डाला और आगे-पीछे करने लगी।”

“आधी कहानी पढ़ने के बाद मेरी चूत पूरी तरह गीली हो गयी और मजा आने को हो गया। मैंने किताब बिस्तर पर रख दी और आँखें बंद करके पेन के कवर को चूत में जोर-जोर से आगे-पीछे करके अपनी चूत चोदने लगी।”

“मेरी बंद आंखों के आगे बशीर था। ऐसा लग रहा था जैसे मेरी चूत में पेन का कवर नहीं बशीर का लंड गया हुआ है और मेरी चुदाई कर रहा है। मेरे मुंह से आआह  आह आअह की आवाजें निकल रही थी।”

“तभी मुझे कुछ आवाज सी सुनाई दी, जैसे किसी ने मुझसे कुछ कहा हो। पहले तो मुझे लगा मेरा वहम था, मगर वही आवाज फिर से आई।”

“मैं कुछ मदद करूं?”

“चौंक कर मैंने आखें खोली तो मुझे कोइ भी दिखाई नहीं दिया। वो आवाज शायद मेरा वहम ही था। मैं आंखें बंद करके फिर से पेन के कवर को चूत में आगे-पीछे करने लगी।”

“अब ये अक्सर होने लगा। जिस दिन मैं मैगजीन उठा कर ऊपर जाते हुए जमाल को बोलती, “जमाल मैं चलूं थोड़ा आराम कर लूं”, तो जमाल मुझे अखबार में लपेट कर कुछ और मैगजीन का बंडल पकड़ा देता। हम दोनों जानते थे कि बंडल में किस तरह के मैगजीन हैं, मगर दोनों ही अनजान से बने हुए थे।”

“ऐसे ही चलता जा रहा था। जमाल मुझे मैगजीन देता मैं ऊपर जा कर चुदाई के तस्वीरें देखती, चुदाई की कहानियां पढ़ती और पेन का कवर चूत में ले कर बशीर से चुदाई के ख्यालों से चूत का पानी छुड़ा लेती।”

“ऐसे ही एक दिन कहानी पढ़ते-पढ़ते पेन का कवर चूत में डाल कर मैं बशीर से चुदाई के ख्यालों में खोई हुई थी कि मुझे फिर वही आवाज सुनाई दी – “मैं कुछ मदद करूं।”

“पहले तो मैंने सोचा उस दिन की तरह मेरा वहम ही होगा।”

“मगर मुझे वही आवाज सुनाई दी, “मैं कुछ मदद करूं? इस बार ऐसा लगा जैसे आवाज मेरे बिल्कुल पास से आयी हो।”

“मैंने आंखें खोली तो मैं हैरान रह गयी। सामने जमाल खड़ा था।”

मेरी सलवार घुटनों तक उतरी हुई थी। पेन का कवर मेरी चूत में था। और जमाल सामने था।”

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