मेरे चारों बच्चे मेरी जान-1

सभी पाठकों को मेरा नमस्कार।

किसी के पूछने या सोचने से पहले ही बता दूँ की यह एक सच्ची कहानी है और लोग चाहे कितने भी हैरान क्यों ना हो, बंद कमरे में क्या होता है, किसके साथ होता है, ये दुनिया कभी नहीं जान पाएगी। और ये पूरी दुनिया ही एक्टिंग कर रही है।

खैर, मेरा नाम आभा प्रसाद है। नाम थोड़े बहुत बदले हुए हैं लेकिन फिर भी असल नाम के आस पास ही हैं ताकि हमारी इज़्ज़त भी बनी रहे और सबका मज़ा भी।
वैसे तो मैं बिहार के एक छोटे से गांव से हूँ लेकिन पिछले कुछ दशकों से दिल्ली में रह रही हूँ।

मेरे 3 बेटे और 1 बेटी है। अभिषेक, अखिल, आरती, अभिनव (बड़े से छोटे के क्रम में)। मेरे बच्चों के नाम भी हमने “अ” से ही रखें हैं क्यूंकि मेरे पति का नाम भी “अ” से ही था, अलोक प्रसाद।

लॉकडाउन के दौरान अकेली बैठ बैठ कर बोर होती थी तो अन्तर्वासना और देसी कहानी में चुदाई की कहानियाँ पढ़ने लगी। एक लेखिका से बात की तो पता चला की परिवार में चुदाई एक आम बात है और इसमें शर्माने की कोई बात नहीं। तो मैंने भी सोचा क्यों ना अपने जीवन की इस सुन्दर घटना को दुनिया को भी सुनाई जाए। इस कहानी को लिखने के लिए मैंने यूट्यूब से टाइप करना सीखा और कुछ लोगों से मदद भी ली।

अब कहानी पे आते है। लेकिन रोमांच से पहले भूमिका को समझना भी ज़रूरी है।

चलिए शुरू करते हैं।

मेरी शादी 1991 में मेरे पति आलोक जी से हुयी। उस वक़्त मैं 18 साल की थी और आलोक 21 के। गांव में होने के कारण मैंने बारहवीं तक की पढ़ाई की और आलोक जी ने पास के शहर से स्नातक की पढ़ाई की थी। और गांव के लोगो की उस वक़्त ये सोच थी की लड़की की शादी जल्द से जल्द करवा दो और लड़के की शादी बिना नौकरी के करवा दो, शादी हो जायेगी तो ज़िम्मेदारियाँ संभाल लेंगे। लेकिन मैंने अपने पिता से विनती की थी की मुझे कम से कम बारहवीं पढ़ने दें और आलोक जी के घरवाले भी थोड़े से ऊँचे विचार के थे।

हमारी शादी हुयी। उस वक़्त आलोक जी गांव के ही पंचायत ऑफिस में काम करते थे। एक साल के अंदर ही हमारा पहला बच्चा अभिनव हो गया। होना ही था क्यूंकि गांव में मनोरंजन का कोई और साधन नहीं तो मैं और मेरे पति हर रात एक दूसरे के जिस्म से लिपटे रहते थे। वो मुझे बहुत प्यार से चोदते थे।

आलोक जी के कुछ मित्र सिविल सेवा परीक्षा की तैय्यारी के लिए दिल्ली में थे। तो उन्होंने मुझसे और सास-ससुर से दिल्ली जाकर तैय्यारी करने की इच्छा ज़ाहिर की। तो ससुर जी ने उन्हें कहा के वे बेफिक्र जाए और उनके पढ़ाई और रहने का खर्च वो दो साल तक देंगे।

पहले तो ये सवाल उठा की वो अकेले जाएंगे तो वहाँ रहने और खाने का कैसे हो पायेगा? तो मैंने ही उनसे कहा की मैं चलूंगी उनके साथ, वरना वे घर के काम और खाना बनाने में उलझ जाएंगे।

काफी विचार-विमर्श के बाद सब राज़ी हो गए और तय हुआ की अभिषेक दादा-दादी के पास रहेगा और जब सब कुछ सेट हो जाएगा तो वो भी आ जाएगा दिल्ली। सच कहूं तो मैं अपने पति के बिना रह नहीं सकती थी। मैं उनसे बहुत प्यार करती थी (आज भी सच्चा प्यार उन्ही से करती हूँ) और वो भी मुझे बहुत प्यार करते थे। उनके बिना रहना मुमकिन नहीं था।

हम दिल्ली आ गए। दो साल तक आलोक जी ने काफी मेहनत की, बिलकुल ध्यान केंद्रित कर के पढ़ाई की। पहले प्रयास में नहीं हुआ। इसी दौरान मैंने भी पास के एक छोटे से कारखाने में नौकरी ले ली। आलोक जी के दूसरे प्रयास के दौरान में गर्भवती हो गयी। और दूसरे प्रयास में सिर्फ 6 अंकों से आलोक जी का सिलेक्शन रह गया।

उनके 4 दोस्तों में से एक का निकल गया और बाकी जिनका नहीं निकला वो सारे गांव वापस चले गए। लेकिन अब घर से पैसे माँगना ठीक नहीं था। और मैं भी पेट से थी तो मुझे भी नौकरी छोड़नी ही पड़ती कुछ दिनों में। तो आलोक जी ने निर्णय लिया की वो घर ना जाकर दिल्ली में कपड़ो का कारोबार करेंगे।

जो थोड़े बहुत पैसे थे हमारे पास, उनसे उन्होंने कारोबार शुरू किया। शुरुआत के दो साल थोड़ी बहुत कष्ट झेलनी पड़ी लेकिन धीरे धीरे कारोबार अच्छा जमने लगा। इसी बीच मेरे दूसरे बेटे,अखिल, का जन्म हुआ। कुछ दिनों के बाद हमने एक प्लॉट ली और एक आलीशान घर बनवाया और अभिषेक को भी अब गांव से दिल्ली बुला लिया।

एक दो सालों के अंतराल में आरती और अभिनव का भी जन्म हुआ। मेरे 4 बच्चे मेरे पति के ही प्यार की निशानी है। ऐसी कोई ज़रूरत नहीं थी जो आलोक जी ने पूरी नहीं की हो। लेकिन उनका प्यार और साथ मेरे लिए काफी था। उनके अलावा में और किसी मर्द को नहीं पहचानती थी।

लेकिन ख़ुशी के बाद दुःख की घड़ी भी आती है। बच्चे बड़े हो रहे थे, कारोबार बढ़ रहा था, जनवरी (2004) का पहला हफ्ता था, कड़ाके की ठंड और आलोक जी को बिलकुल सुबह माल की डिलीवरी लेने के लिए जाना था। लेकिन कोल्ड स्ट्रोक लगने की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी। हमारा हँसता खेलता परिवार बिलकुल उजड़ गया।

मैंने खुद को अपने मन में ज़ोर लाकर संभाला क्यूंकि बच्चे अभी भी छोटे थे और दिल्ली शहर में 4 बच्चों को पालना मुश्किल था। और कारोबार अच्छा खासा बड़ा हो गया था। उसे यूँ ही छोड़ के भागना मुश्किल था। मैंने ससुरजी और सासुमा से कहा के वो यहाँ आ जाएंगे तो बहुत मदद हो जायेगी। वो दोनों मान गए और गांव की खेती ठेके पे देकर दिल्ली आ गए।

अब मैं कारोबार संभालने लगी क्यूंकि आलोक जी बताते रहते थे। और मेरे ससुरजी मेरी मदद करते थे, क्यूंकि में हिसाब किताब में थोड़ी कच्ची थी। सासुमा बच्चों का देख भाल करती।

सब कुछ अब नार्मल चल रहा था। आलोक जी की हर दिन याद आती। उनको गए अब करीबन डेढ़-पौने दो साल होने को आये। इतने दिनों बाद अब मेरी चुत चुदाई की मांग करने लगी। हर रात आलोक जी को याद करती और चुत रगड़ के, दूदू दबाके, अपनी पानी निकल कर सो जाती। धीरे धीरे चाहत बढ़ने लगी, कभी मूली, कभी खीरा, कभी केला घुसाने लगी अपनी चुत में।

आग इतनी बढ़ गयी, की मैंने वो करना शुरू कर दिया जो मैंने कल्पना भी नहीं की होगी। मैं अपने ऑफिस के एक कर्मचारी से चुदने लगी। और उससे चुदने के बाद उसे 500 रुपये देती थी। मेरे ससुरजी जब हिसाब मिलाते तो हर दूसरे-तीसरे दिन 500 रुपये गायब रहता।

मुझे बस अपनी चुत की जलन शांत करनी थी।

एक दिन ससुरजी को हल्का बुखार था तो उन्होंने कहा वो आज नहीं जा पाएंगे मेरे साथ। मैं जाते ही कर्मचारी को अपने केबिन में बुला कर चुदने लगी। अचानक किसी ने गेट खोला और हम हड़बड़ा गए। मैंने देखा तो ससुरजी थे। उन्होंने कुछ नहीं बोला और वो चले गए। मैं भी जल्दी से कपड़े ठीक करने लगी और कर्मचारी जल्द ही कमरे से बाहर निकल गया। उसके जाते ही ससुरजी अंदर आये। मैंने उनसे माफ़ी मांगी तो उन्होंने मेरे सर पर हाँथ रख कर कहा “कोई बात नहीं बेटा, घर पर करेंगे बात!”।

वो बिलकुल नार्मल थे और फिर किसी तरह काम ख़तम करके हम जल्दी घर आ गए। मैंने सासुमाँ से कहा की आज आप बच्चों को खाना खिलाके सुला दीजिये, मेरी तबियत ख़राब है, मैं ज़रा आराम करुँगी। और मैं अपने कमरे में चली गयी और रोते हुए सो गयी। शायद मुझे खुद पे घिन्न आ रही थी।

रात के करीबन 9 बजे मेरे कमरे के दरवाज़े पे खटखट हुयी, मैंने अंदर आने को कहा। सासुमाँ और ससुरजी हम तीनों के लिए चाय लेकर आये थे। उन्होंने अंदर आते ही गेट बंद कर दी। ससुरजी सोफे पर बैठ गए। सासुमाँ एक कप मुझे दी और मेरे पास आकर बैठी।

सासुमाँ ने कहा, “बेटा, इन्होने मुझे सब बताया। और मैं भी कई रातों से देख रहीं हूँ तुझे सब्ज़ी अपने कमरे में ले आते हुए। और ये बता रहे थे की कई दिनों से 500 रुपये की गड़बड़ी होती है और तू शांत रहती है। और आज जो तू उस कर्मचारी के साथ कर रही थी।”

इतने में मैं रो पड़ी। तो ससुरजी ने कहा, “बेटा, तू दुबारा शादी कर ले। इस उम्र में एक औरत को एक आदमी का साथ चाहिए होता है और हम तेरी पीड़ा समझ रहे हैं बेटा। तू बहुत मज़बूत है। वरना औरतें पति के मरने के बाद टूट जाती हैं। तूने हिम्मत नहीं हारी। बच्चों की परवरिश, इतना बड़ा कारोबार संभालना, वो भी अपनी ख़ुशी को त्याग कर के, छोटी बात नहीं है बेटा।”

सासुमाँ ने कहा, “हाँ बेटा, तू करले किसी से शादी। हम करवाएंगे। बेटे के मरने के बाद भी तू हमें मान रही है, इससे बड़ी बात कुछ नहीं। ईश्वर ने हमसे बेटा छीन लिया लेकिन इतनी अच्छी बेटी दी है और इतने सुन्दर सुन्दर पोता-पोती।”

इतने में मैंने कहा, “माजी-बाबूजी, मैंने सिर्फ एक व्यक्ति से प्यार की है, वो हैं आलोक जी। उनके अलावा मेरा और कोई नहीं। उनके दिए हुए बच्चे और माँ-बाप। बस, यही मेरी दुनिया है। मैं शादी कर भी लूँ, तो आप दोनों से दूर हो जाउंगी।

क्या पता जिससे शादी हो वो बच्चों को ना प्यार करे, किस तरह से मुझसे व्यवहार करे? नहीं पता। आज जो भी बाबूजी ने देखा, वो बस शरीर के परेशानी को शांत करने के लिए था। मेरा कोई भी मन लगाव नहीं है किसी से और ना कभी हो पायेगा। मेरी दुनिया बस मेरे 4 बच्चे और आप दोनों हो।”

“ठीक है बेटा, तू भी हमारा ही बच्चा है। तुझे जैसा ठीक लगे। तू कर्मचारी से चलते रहने दे, पर सब्ज़ियों को इस्तेमाल मत कर। सेहत के लिए ठीक नहीं।”, ये कह कर वो हंस पड़ी और मुझे गले लगाकर आशीर्वाद देकर दोनों चले गए।

दिन बीतते गए। अब एक और कर्मचारी था जो मुझे चोदता था। पुराने वाला अब 800 लेता था और नए वाला 500। पर मैं हफ्ते में बस दो दिन ही चुदती थी।

कारोबार बहुत अच्छा चल रहा था, हर कुछ अब अपने आप होने लगा था। मैं और ससुरजी बस हिसाब किताब लेने जाते। बाकी काम सारे कर्मचारी करते। इसी बीच मैंने एक किट्टी ज्वाइन की क्यूंकि घर में बोरियत सी लगती। इतने सालो में पहली बार कुछ सहेलियां बनी।

बच्चे बड़े हो रहे थे, सासुमाँ की तबियत अब थोड़ी ख़राब रहने लगी थी। और एक दिन हार्ट अटैक से सासुमाँ का देहांत हो गया। और एक साल के अंदर ही ससुरजी का भी देहांत हो गया और हम सब फिर अकेले हो गए। ये बात 2009-10 की है।

पैसे की कमी बिलकुल नहीं थी। कारोबार से महीने के 15-20 लाख आ जाते। गांव के खेतो से साल का 5-6 लाख। दिल्ली में ये 2 कड़ोड़ का घर और एक और पास में प्लॉट। लेकिन कमी थी मेरे लिए ख़ुशी की।

अब आगे  वो कहानी शुरू होगी जो यहाँ पाठक पढ़ने आते हैं, रोमांच की कहानी, जो जल्दी ही आएगी अगले भाग में।